Sunday 24 August, 2014

उमेश चौहान की बाल-कविताएँ

हिंदी साहित्य में बड़ों के साथ-साथ, नन्हे-मुन्नों के लिए भी लेखन करने वालों की कमी नहीं है। बाल-साहित्य एक ऐसी विधा है, जहाँ बड़ों को भी बच्चा बनकर सोचना पड़ता है, अन्यथा लेखन में कृत्रिमता हावी हो जाती है।  उमेश चौहान जी  उन लोगों में से हैं, जो बड़ों के साथ-साथ बच्चों के लिए भी निरंतर लेखन कर रहे हैं। उनकी बाल-कवितायेँ जहाँ बच्चों में मनोरंजन पैदा करती हैं, वहीँ उन्हें सीख भी देती हैं।  वे अपनी बाल कविताओं के बहाने कई बार अपना बचपन भी खोजते हैं। उमेश चौहान जी लेखक के साथ-साथ एक प्रशासनिक अधिकारी भी हैं।  साहित्य उन्हें संवेदनशील बनाता है और लोगों के नजदीक भी करता है।  बाल दुनिया ब्लॉग पर हम पहले भी उनकी कवितायेँ प्रकाशित कर चुके हैं और अब उनकी कुछ और बाल-कविताएँ :

लालची चाचा

चाचा-चाची एक बार बाजार गए सज-धजकर
भोले-भाले चाचा पहुँचे सब्जी - मंडी भीतर।
गोल-गोल तरबूज वहाँ बिकते थे सुंदर-सुंदर
नहीं कभी देखा चाचा ने लगे परखने बढ़कर।

सब्जी वाले से चाचा ने पूछा, “यह क्या भाई?”
“हाथी का अंडा” कह करके उसने बात बनाई।
ऐसा सुनकर चाचा जी को अचरज हुआ भयंकर
खुशी-खुशी चाची से बोले, “चीज बड़ी यह सुंदर!

चलो इसे ले चलकर घर में सेवा खूब करेंगे
कुछ दिन में जब बच्चा होगा, खिला-पिला पालेंगे।
नहीं किसी के घर में ऐसा होते अब तक देखा
बड़े खुशी होंगे सब बच्चे, राजू, सनी, सुरेखा।”

सब्जी वाले ने चाचा को जमकर मूर्ख बनाया
काफी  पैसे  ले  करके पूरा तरबूज थमाया।
बोला, “चाचा! इसे राह में फटने कहीं न देना
किसी जगह पर इसे जोर से नीचे मत रख देना।”

सहमे-सहमे चाचा उसको चले हाथ में लेकर
डरते थे वह फूट न जाए कहीं जोर से दबकर।
बीच राह में बड़े जोर की प्यास लगी चाचा को
नीचे रखकर उसे मिटाने चले तुरत तृष्णा को।

पास एक झाड़ी थी जिसमें एक स्यार था रहता
चाचा के डर से वह भागा खुरखुर-गुरगुर करता।
समझा चाचा ने कि फट गया शायद उनका अंडा
भाग रहा हाथी का बच्चा, सोच उठाया डंडा।
दौड़े  चाचा उसे  पकड़ने पास  घना जंगल था
घुसे उसी में नहीं चैन अब उन्हें एक भी पल था।
खड़ी रह गईं चाची करतीं मना उन्हें जाने से
किन्तु न माने चाचा दौड़े जिद अपनी ठाने से।

जंगल में चाचा को पाकर एक भेड़िया आया
पकड़ मार डाला चाचा को पेट फाड़कर खाया।
फँसे मूर्खता में निज चाचा बुद्धि न उनको आई
झूठे लालच में फँस करके अपनी जान गँवाई।

डॉगी
मेरे घर में डॉगी है
थोड़ा-थोड़ा बागी है।

अंग्रेजी में बातें करता
हिन्दी सुनते ही गुर्राता,
दाल-पनीर देखकर बिचके
मटन-चिकन झट चट कर जाता’
पापा ने ला डाला इसके 
पट्टा एक गुलाबी है। मेरे घर में ……

मेरे संग फुटबाल खेलता
खुश हो-होकर पूँछ हिलाता,
किन्तु बड़े जोरों से भूँके
कोई अजनबी जब घर आता,
पूर्व परिचितों के प्रति लेकिन
यह असीम अनुरागी है। मेरे घर में ……

नाम रखा है ‘बूजो’ इसका
संकर नस्ल रंग भूरा सा,
घर की रखवाली में तत्पर
हल्की आहट सुन उठ जाता,
आया जब से है यह घर में
बिल्ली घर से भागी है। मेरे घर में ……



मस्ती

 काले-काले बादल छाए
पुरवाई संग उड़कर आए।

जमकर बरसे मेघ सलोने
भीगे धरती के सब कोने।
रिंकू ने भी शर्ट उतारी
भीग-भीग किलकारी मारी।
सिम्मी, निम्मी, रिंकी, अख़्तर
जुटे सभी पल भर में छत पर।
दौड़-दौड़ सारे बच्चों ने
मस्ती के परचम लहराए। काले-काले बादल ……

खेल-खेल में ही रिंकू ने
अख़्तर को थोड़ा धकियाया।
छत की रेलिंग पर लटका था
अख़्तर खुद से संभल न पाय।
नीचे जाकर गिरा जोर से
गिरते ही फिर होश न आया।
भागे सारे बच्चे नीचे
मम्मी-पापा भी घबराए। काले-काले बादल ……

अस्पताल ले जा अख़्तर को
डॉक्टर से उपचार कराया।
चोट नहीं गहरी थी उसकी
होश तभी अख़्तर को आया।
बहुत सभी पछताए बच्चे
पापा-मम्मी ने समझाया।
मस्ती बहुत जरूरी होती

लेकिन सबकी हैं सीमाएं। काले-काले बादल ……

अनमोल खजाना

दीपक बड़ा दुलारा था
दादा जी को प्यारा था,
पापा दूर शहर में रहते
सबका वही सहारा था।

दादा जी बिलकुल बूढ़े थे
वे घंटों पूजा करते थे,
खर्चे-पानी से जो बचता
एक तिजोरी में रखते थे।

उसे खोलना और बंद
करना दीपक को भाता था,
बेहिसाब रखवाली का वह
पूरा लाभ उठाता था।

रोज सुबह चुपके उससे वह
रुपए बीस चुराता था,
विद्यालय के इंटरवल में
चाट-पकोड़े खाता था।

खिला-पिलाकर उसने अपने
साथी खूब बनाए थे,
उनके संग ही आता-जाता
असल दोस्त कतराए थे।

दादा कभी भाँप ना पाए
थे दीपक की चालाकी,
जब-जब वे बीमार पड़े
उसने ही उनकी सेवा की।
लेकिन चमत्कार होते हैं
कभी-कभी कुछ जीवन में,
महा-चरित्रों से मिलती है
सीख अनोखी बचपन में।

उस दिन टीचर ने कक्षा में
भावुक  हो  समझाया  था,
गाँधी जी की आत्म-कथा का
हिस्सा  एक  सुनाया  था।

गाँधी जी ने भी बचपन में
घर  के  द्रव्य चुराए  थे,
किन्तु बाद में पछताकर
बीमार पिता ढिग आए थे।

सच-सच लिखकर बता दिया
चिपटे फिर जोर-जोर  रोए,
आगे अपने कर्म-क्षेत्र में
बीज  सत्य  के  ही  बोए।

पढ़ते ही यह पाठ अचानक
दीपक का मन भर आया,
लौट शाम को घर पर उसने
दादा  को  सच  बतलाया।

फूट-फूटकर दीपक रोया
दादा से माफी माँगी,
चोरी-झूठ त्यागकर उसमें
सच के प्रति निष्ठा जागी।

दादा जी ने विह्वल होकर
उसे  प्यार  से  दुलराया,
थमा तिजोरी की चाभी फिर
बड़ा  मनोबल  उकसाया।

एक पाठ की एक सीख ने
दीपक का जीवन बदला,
शिक्षा का अनमोल खजाना
करता सबका सदा भला।

-उमेश चौहान 
सम्पर्क: सी-II/ 195, सत्य मार्ग, चाणक्यपुरी, नई दिल्ली–110021 (मो. नं. +91-8826262223).

पूरा नाम: उमेश कुमार सिंह चौहान (यू. के. एस. चौहान)
जन्म: 9 अप्रैल, 1959 को उत्तर प्रदेश के लखनऊ जनपद के ग्राम दादूपुर में।
शिक्षा: एम. एससी. (वनस्पति विज्ञान), एम. ए. (हिन्दी), पी. जी. डिप्लोमा (पत्रकारिता व जनसंचार)।

साहित्यिक गतिविधियाँ:

प्रकाशित पुस्तकें: ‘गाँठ में लूँ बाँध थोड़ी चाँदनी’ (प्रेम-गीतों का संग्रह) - सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली (2001), ‘दाना चुगते मुरगे’ (कविता-संग्रह) - सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली (2004), ‘अक्कित्तम की प्रतिनिधि कविताएं’  (मलयालम के महाकवि अक्कित्तम की अनूदित कविताओं का संग्रह) - भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली (2009), ‘जिन्हें डर नहीं लगता’ (कविता-संग्रह) - शिल्पायन, दिल्ली (2009), एवं ‘जनतंत्र का अभिमन्यु’ (कविता – संग्रह) - भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली (2012), मई 2013 से हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र 'जनसंदेश टाइम्स' (लखनऊ, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी एवं गोरखपुर से प्रकाशित) में साप्ताहिक स्तम्भ-लेखन

संपादित पुस्तकें: 'जनमंच' (श्री सी.वी. आनन्दबोस के मलयालम उपन्यास 'नाट्टुकूट्टम' का हिन्दी अनुवाद) - शिल्पायन, दिल्ली (2013)

सम्मान: भाषा समन्वय वेदी, कालीकट द्वारा ‘अभय देव स्मारक भाषा समन्वय पुरस्कार’ (2009) तथा इफ्को द्वारा ‘राजभाषा सम्मान’ (2011)





Monday 18 August, 2014

माखनचोर का जन्मदिन



मुरलीधर मथुराधिपति माधव मदनकिशोर. 
मेरे मन मन्दिर बसो मोहन माखनचोर. 

कृष्ण जन्माष्टमी पर हार्दिक बधाइयाँ !!